उमर बिन अब्दुल अजीज: एक ऐसा महान मुस्लिम शासक जिसका नाम रहती दुनिया तक रहेगा । Omar Bin Abdul Aziz: A Great Muslim Ruler Whose Name Will Always Be Remembered

उमर बिन अब्दुल अजीज: एक ऐसा महान मुस्लिम शासक जिसका नाम रहती दुनिया तक रहेगा । Omar Bin Abdul Aziz: A Great Muslim Ruler Whose Name Will Always Be Remembered.

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जेद्दा (सऊदी अरब): इस दुनिया में कुछ ऐसे महान शासक गुज़रे हैं जिन्होंने इतिहास में अपनी बेहतरीन छाप छोड़ी है जिन्हें हमारी आज की पीढ़ी को पढ़ने और जानने की ज़रूरत है। इस इतिहासिक सूची में खलीफा उमर बिन अब्दुल अजीज सबसे ऊपर आते हैं। उन्हें मुस्लिम इतिहास के सबसे बेहतरीन शासकों में से एक माना जाता है, जो चार महान खलीफाओं में दूसरे नंबर पर आते हैं उनमें अबू बक्र, उमर, उस्मान और अली (रज़ियल्लाह) शामिल हैं। उनकी कारकर्दगी और इन्साफ को देखते हुए कुछ हिस्सों में, उन्हें प्यार से इस्लाम के पांचवें और आखिरी ख़लीफ़ा के रूप में जाना जाता है।

रोमन सम्राट ने जब उनकी मृत्यु के बारे में सुना, तो उन्होंने कहा: "आज एक बड़ी अज़ीम शख्सियत  का निधन हो गया। मैं इनके बाद शायद ही ऐसे व्यक्ति को देखूं जो दुनिया को त्याग कर खुद को अल्लाह के सुपुर्द करदे और अवाम के बीच ऐसा इन्साफ करे।" उन्होंने आगे कहा की मैं निश्चित रूप से आश्चर्यचकित हूं के वह व्यक्ति जिसके अपने पैरों के पास दुनिया के सभी सुख थे लेकिन फिर भी उसने उन्हें अपने लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया, वह धर्मनिष्ठा और त्याग के व्यक्ति थे।"



उमर बिन अब्दुल अजीज ने अपने जीवनकाल में केवल 30 महीनों के लिए खलीफा के रूप में शासन किया लेकिन इस छोटी अवधि के दौरान उन्होंने दुनिया को बदल दिया। उनका कार्यकाल उमय्यद खलीफा के 92 साल के इतिहास में सबसे उज्ज्वल अवधि मानी जाती है।

वह मिस्र के गवर्नर अब्दुल अजीज बिन मारवान के बेटे थे, जबकि उनकी मां, उम्म-ए-आसिम खलीफा उमर इब्न अल खत्ताब की पोती थी।

उमर बिन अब्दुल अजीज का जन्म 63 हिजरी में यानी (682 AD) में मिस्र के हलवान में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपनी शिक्षा मदीना में अपनी माँ के चाचा, प्रसिद्ध विद्वान अब्दुल्ला इब्न उमर से प्राप्त की। 704 ई। में अपने पिता की मृत्यु तक वह मदीना में रहे, जब उन्हें उनके चाचा खलीफा अब्दुल मलिक ने बुलाया और उनकी बेटी फातिमा से शादी की। उन्हें 706 ई। में वह मदीना के गवर्नर नियुक्त किये गए, जो खलीफा वलीद बिन अब्दुल मलिक के उत्तराधिकारी थे।

उमर खलीफा वालिद और खलीफा सुलेमान के शासनकाल के दौरान आप मदीना के राज्यपाल बने रहे। लेकिन जब सुलेमान गंभीर रूप से बीमार पड़ गए उस वक़्त उनके बेटे नाबालिग थे तो ऐसे में सलाहकार, रिजा इब्न हैवा ने उन्हें चचेरे भाई उमर बिन अब्दुल अजीज को उनका उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रस्ताव दिया। सुलेमान ने सुझाव स्वीकार कर लिया।

ख़लीफ़ा नामांकित होने के बाद, उमर ने लोगों को पल्पिट से यह कहते हुए संबोधित किया: “ए लोगों, मेरी मर्ज़ी ना होने के बावजूद और आपकी सहमति के बिना मुझे आपका ख़लीफ़ा नामांकित किया गया है। इसलिए मैं यहाँ हूँ, मैं आपको अपनी प्रतिज्ञा से मुक्त करता हूँ जो आपने मेरी निष्ठा के लिए की है। आप जिसे भी अपने ख़लीफ़ा के रूप में उपयुक्त पाते हैं, उसका चुनाव करें। "लोग चिल्लाए:" ऐ उमर, हमें तुम पर पूरा भरोसा है और हम तुम्हें ही हमारे ख़लीफ़ा के रूप में चाहते हैं। "उमर ने कहा," ऐ लोगों, जब तक मैं अल्लाह के हुक्म का पालन करता हूं, तब तक मेरी बात मान लो; और जिस दिन मैं अल्लाह की अवज्ञा करूँ, आप मेरी बात मानने के लिए बाध्य नहीं होंगे।”

उमर बेहद पवित्र इंसान थे और दुनयावी मोहमाया से कोसों दूर थे। उन्होंने अपनी सादगी को प्राथमिकता दी। उन्होंने अपने हुकूमत के लिए जो भी संपत्ति और धन इखट्टा किया वह सब बैत अल माल  में जमा था और कभी भी अपनी जाती खर्चे के लिए उसे नहीं छुआ यहां तक ​​कि उन्होंने अपने शाही महल को भी छोड़ दिया और एक मामूली से किराये के घर में रहना पसंद किया। उन्होंने शाही लिबास के बजाय मोटे कपड़े पहने और अक्सर अपने दादा खलीफा उमर इब्न अल खत्ताब की तरह सार्वजनिक रूप से पहचाने जाते थे।



ख़लीफ़ा के रूप में अपनी नियुक्ति के बाद, उन्होंने राजसी जीवन-सेवकों, दासों, नौकरों, नौकरानियों, घोड़ों, महलों, सुनहरे वस्त्र और सुख सम्पदा के सभी धूमधाम त्याग दिया । उन्हें यह सब बैत अल माल को लौटा दिया। उन्होंने अपनी पत्नी फातिमा को अपने पिता खलीफा अब्दुल मलिक से मिले हुए गहने तक बैतूल माल में वापस करवा दिए। वफ़ादार पत्नी ने उनकी बात का पालन किया और यह सब बैत अल माल में जमा कर दिया। बाद में, उन्होंने अपनी लक्जरी की नीलामी करके उस समय के 23,000 दीनार प्राप्त किए और यह सारे पैसे धार्मिक उद्देश्यों और लोगों के कल्याण के लिए खर्च किये।"

इसके इलावा उन्होंने कभी अपना घर नहीं बनाया। अल्लामा सुयुती ने अपने ऐतिहासिक किताब "तारीख अल खुल्फा" में लिखा है कि जब उमर ख़लीफ़ा थे वह एक दिन में केवल दो दिरहम खर्च किया करते थे यहाँ तक की उन्हें मज़दूरों की तुलना में कम वेतन मिलता था। उनकी निजी संपत्तियों में उनके नामांकन से पहले सालाना 50,000 दीनार की आमदनी होती थी, लेकिन जब उन्होंने बैत अल माल को अपनी सारी संपत्ति लौटा दी, तो उनकी निजी आय 200 दीनार प्रति वर्ष हो गई। यह उनका कुल सालाना धन था जब वह पश्चिम में फ्रांस की सीमाओं से लेकर पूर्व में चीन की सीमाओं तक विशाल खलीफा की कमान संभाल रहे थे।

एक बार उनकी पत्नी ने नमाज़ के बाद उन्हें रोते हुए पाया। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ। उन्होंने उत्तर दिया: "मुझे मुसलमानों पर शासक बनाया गया है और मैं उन गरीबों के बारे में सोच रहा था जो भूखे मर रहे हैं, और बीमार जो निराश्रित हैं, और नग्न जो संकट में हैं, और जो उत्पीड़ित हैं, और कई ऐसे अजनबी हैं जो जेलों में क़ैद हैं, और ऐसे लोग जो एक बड़े परिवार को पालता पोस्ता है और उनके लिए साधन जुटाता है इसके इलावा इस पृथ्वी और दूर के प्रांतों के देशों में इस तरह के कई और लोग है। मुझे डर हुआ कि मेरा अल्लाह मुझसे उनके बारे में ना पूछ ले।



उनकी उदारता और इन्साफ को देख कर लोगों ने अपनी स्वेच्छा से सरकारी ख़ज़ाने में कर जमा करना शुरू कर दिया था। इब्न कथीर लिखते हैं कि उमर द्वारा किए गए सुधारों के वजह से सिर्फ फारस से अकेले वार्षिक राजस्व 28 मिलियन दिरहम से बढ़कर 124 मिलियन दिरहम हो गया था।

उन्होंने फारस, खोरासन और उत्तरी अफ्रीका में व्यापक सार्वजनिक कार्य किए, जिसमें नहरों का निर्माण, सड़क, यात्रियों के लिए विश्राम गृह और चिकित्सा औषधालय शामिल हैं

इसका परिणाम यह हुआ कि ढाई साल के अपने इस छोटे शासनकाल में वहां के लोग इतने समृद्ध, संतुष्ट और खुशहाल हो गए के यहाँ तक की किसी को भीक देने के लिए भी ढूंढ़ना मुश्किल हो गया।

उमर को आधिकारिक तरीके से हदीस के संग्रह का आदेश देने का श्रेय हासिल था, इस डर से कि इसमें से कुछ छूट ना जाए। अबू बक्र इब्न मुहम्मद इब्न हज्म और इब्न शिहाब अल-ज़हरी, उन लोगों में से थे जिन्होंने उमर के आधीन हदीस को किताबी शकल दी।

पैगंबर मुहम्मद (PBUH) के नक़्शे क़दम पर चलते हुए, उमर ने चीन और तिब्बत में उनके शासकों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए आमंत्रण दिया। यह उमर का कार्यकाल था कि इस्लाम ने अपनी जड़ें मज़बूत कीं और फारस और मिस्र की आबादी के एक बड़े हिस्से ने इस्लाम को स्वैच्छा से स्वीकार कर लिया। जब अधिकारियों ने शिकायत की के स्वैच्छा से धर्मांतरण के कारण राज्य के जीज़िया राजस्व में भारी गिरावट आई है, तो उमर ने यह कहते हुए वापस लिखा कि "पैगंबर मुहम्मद (उन पर शांति) को पैगंबर के रूप में भेजा गया था ताकि लोगों को इस्लाम की तालीम दे सकें ना ही टैक्स कलेक्टर के रूप में। "उन्होंने गृह कर, विवाह कर, स्टांप टैक्स और कई अन्य करों को भी समाप्त कर दिया। जब उनके कई एजेंटों ने लिखा कि नए धर्मान्तरित लोगों के वजह से उनके राजकोषीय सुधार खजाना खाली हो रहा है, तो उन्होंने कहा,"मैं अल्लाह के द्वारा, हर किसी को मुस्लिम बनते देखना चाहता हूं यहाँ तक की आपको और मुझे अपने हाथों से मिट्टी खोद कर ज़िन्दगी ना गुज़ारना पड़ जाये।"



एक बार एक मुस्लिम ने हीरा (स्थान का नाम) के गैर-मुस्लिम की किसी बात पर हत्या कर दी। खलीफा उमर को जब इस घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने राज्यपाल को मामले में न्याय करने का आदेश दिया। उस मुस्लिम शख्स को जिसने हत्या की थी उसे मरने वाले शख्स के रिश्तेदारों के हवाले कर दिया ताकि वह इन्साफ के लिए उस से जैसे चाहें बदला लें और फिर उसके रिश्तेदारों ने उस मुस्लिम शख्स को यहाँ तक की मार डाला और बादशाह ने इन्साफ के खातिर कुछ नहीं कहा।

उस समय की सामान्य रियासत न्याय, सादगी और समानता की इन नीतियों को पचा नहीं सकी। ख़लीफ़ा के एक ग़ुलाम को उन्हें मार डालने के लिए रिश्वत दी गई थी कि वह उनके खाने में घातक ज़हर मिलादे। ख़लीफ़ा ने खाने में गुलाम के द्वारा मिलाये गए ज़हर का असर महसूस किया और उससे पूछा कि उसने उन्हें ज़हर क्यों दिया?। ग़ुलाम ने जवाब दिया कि उसे ऐसा करने के लिए 1,000 दीनार दिए गए थे। ख़लीफ़ा ने उससे वह राशि ले ली और उसे बैत अल माल में जमा कर दिया। गुलाम को आज़ाद करते हुए उन्होंने उसे तुरंत जगह छोड़ने को कहा, के कहीं ऐसा न हो कि खलीफा के मरने के बाद कोई उसे भी मार डाले, यह थी खलीफा की शख्सियत। परजा के कल्याण के लिए बैत अल-माल में यह उनकी आखिरी जमा राशि थी।



उमर की मृत्यु रजब महीने के 101 AH में 38 वर्ष की आयु में होम्स के पास डायर सिमैन नामक स्थान पर किराये के माकन में हुई जहाँ उन्हें घुलम द्वारा घातक ज़हर दिया गया था। उन्हें एक ईसाई से खरीदी गई भूमि के एक टुकड़े पर डायर सिमैन में दफनाया गया था। मरने के बाद जब उनकी संम्पत्ति का कुल जमा किया गया तो उस समय उनके पास केवल 17 दीनार थे जो उन्होंने अपने पीछे छोड़ा था वह भी इस इच्छा के साथ कि इस राशि का वह घर जिसमें उन्होंने आखरी सांस ली और जिस भूमि में उन्हें दफनाया गया उसकी कीमत का भुगतान किया जा सके। इस तरह यह महान शख्सियत  इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गए।

हम अल्लाह से द्वारा करते है की वह सर्वशक्तिमान अल्लाह इस महान शख्सियत की आत्मा को शांति दे और उन्हें स्वर्ग में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान करे।

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